क्या आपने कभी सोचा है कि लोग गले में दर्द होने पर हल्दी वाला दूध क्यों पीते हैं, या पेट ठीक करने के लिए त्रिफला क्यों लेते हैं?
ये सिर्फ दादी-नानी के नुस्खे नहीं हैं, ये आयुर्वेद है। आयुर्वेद भारत की एक बहुत पुरानी इलाज की पद्धति है, जो 5000 साल से भी ज्यादा पुरानी है। इसमें जड़ी-बूटियाँ बहुत जरूरी होती हैं। ये पौधों से बनी दवाएं होती हैं, जो शरीर के साथ मिलकर काम करती हैं।
आज के समय में लोग फिर से पुराने और नेचुरल इलाज की ओर लौट रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, आयुर्वेदिक बाजार 2033 तक 22 अरब डॉलर का हो सकता है। इसका मतलब है कि अब लोग आयुर्वेद में फिर से भरोसा दिखा रहे हैं।
अब जानते हैं कि आयुर्वेद में जड़ी-बूटियाँ कैसे काम करती हैं और “दोष” और “पौधों की ताकत” को समझना क्यों जरूरी है।
आयुर्वेद क्या है?
आयुर्वेद सिर्फ दवा लेने का तरीका नहीं है। यह एक पूरा जीवन जीने का तरीका है। “आयुर्वेद” का मतलब होता है – “जीवन का ज्ञान”। यह हमें सिखाता है कि शरीर, मन और प्रकृति के साथ संतुलन में कैसे रहें।
आयुर्वेद मानता है कि हर इंसान अलग होता है। जो चीज़ एक इंसान को ठीक करे, वही दूसरे के लिए ठीक न हो। इसी सोच से “दोष” का सिद्धांत आता है।
दोष क्या होते हैं?
आयुर्वेद कहता है कि हमारे शरीर में पांच तत्व होते हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनसे मिलकर तीन प्रकार के दोष बनते हैं:
वात (वायु + आकाश):
हल्का, ठंडा, सूखा और तेज। ऐसे लोग बहुत सोचते हैं और जल्दी थक जाते हैं।पित्त (अग्नि + जल):
गर्म, तेज, और गुस्से वाले। ऐसे लोग फोकस्ड होते हैं लेकिन जल्दी चिड़चिड़े हो जाते हैं।कफ (पृथ्वी + जल):
भारी, शांत और धीमे। ऐसे लोग प्यार से भरे होते हैं लेकिन वजन और सुस्ती की परेशानी होती है।
हर किसी में ये तीनों दोष होते हैं, लेकिन एक या दो ज़्यादा होते हैं। आयुर्वेद का मकसद इन दोषों को बैलेंस करना होता है। इसमें जड़ी-बूटियाँ बहुत मदद करती हैं।
जड़ी-बूटियाँ कैसे दोषों को संतुलित करती हैं?
हर जड़ी-बूटी हर किसी के लिए एक जैसी काम नहीं करती। हर जड़ी-बूटी अलग-अलग दोषों पर अलग असर डालती है।
कुछ उदाहरण देखें:
अश्वगंधा – वात दोष को शांत करता है और तनाव कम करता है।
हल्दी – तीनों दोषों के लिए अच्छी है, खासकर पित्त के लिए क्योंकि यह सूजन कम करती है।
त्रिफला – पाचन के लिए बहुत अच्छा है और सभी दोषों को धीरे-धीरे संतुलित करता है।
अदरक – पाचन ठीक करता है और कफ को कम करता है।
आयुर्वेद में इलाज का मतलब है शरीर को संतुलित करना, न कि सिर्फ बीमारी हटाना।
जड़ी-बूटियों की ताकत को कैसे समझें?
आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों को तीन तरीकों से समझा जाता है:
रस (स्वाद):
6 प्रकार के स्वाद होते हैं – मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, तीखा, कसैला। हर स्वाद दोषों को बढ़ाता या कम करता है।मीठा – कफ को बढ़ाता, लेकिन वात और पित्त को शांत करता।
तीखा – कफ और वात को कम करता, लेकिन पित्त को बढ़ा सकता है।
वीर्य (गरम या ठंडा असर):
कुछ जड़ी-बूटियाँ गरम होती हैं जैसे अदरक और दालचीनी।
कुछ ठंडी होती हैं जैसे एलोवेरा और चंदन।
कफ वाले लोग गरम चीज़ें लें।
पित्त वाले लोग ठंडी चीज़ें लें।
विपाक (पाचन के बाद असर):
यह उस जड़ी-बूटी का असर होता है जो पचने के बाद होता है।जैसे आँवला – खट्टा लगता है लेकिन पचने के बाद मीठा असर देता है। सभी दोषों के लिए अच्छा है।
हर किसी के लिए एक जैसी जड़ी-बूटी क्यों नहीं?
मान लीजिए आपको गैस की समस्या है। अंग्रेज़ी दवा सिर्फ गैस कम करेगी। लेकिन आयुर्वेद यह समझने की कोशिश करता है कि गैस हो क्यों रही है –
क्या यह तनाव (वात) से है?
या तीखा खाना (पित्त) से?
या पाचन गड़बड़ (कफ) से?
हर दोष के लिए अलग इलाज होता है। इसलिए सभी के लिए एक ही जड़ी-बूटी सही नहीं होती।
उदाहरण: हल्दी
हल्दी सूजन के लिए अच्छी होती है। लेकिन यह गरम होती है –
पित्त वाले लोग ज़्यादा हल्दी खाएं तो गर्मी बढ़ सकती है।
कफ वालों के लिए हल्दी बढ़िया है, क्योंकि यह बलगम और heaviness कम करती है।
वात वालों के लिए हल्दी दूध या घी के साथ लेनी चाहिए ताकि सूखापन न बढ़े।
हमारे रोज़मर्रा के जीवन में यह सब क्यों ज़रूरी है?
आजकल हम दवाएं या हर्बल चाय बिना सोचे-समझे ले लेते हैं। लेकिन आयुर्वेद हमें सिखाता है कि शरीर को सुनो और प्रकृति के साथ चलो।
जड़ी-बूटियाँ सब कुछ ठीक नहीं करतीं, लेकिन ये धीरे-धीरे शरीर को बैलेंस में लाती हैं।
इसके लिए हमें जानना चाहिए कि:
हमारा दोष क्या है,
शरीर में क्या असंतुलन है,
और कौन सी जड़ी-बूटी हमारे लिए सही है।
तो अगली बार जब आप तुलसी की चाय या अश्वगंधा लें, तो सोचिए – “क्या यह जड़ी-बूटी मुझे संतुलन में रख रही है?”
बस, यहीं से असली आयुर्वेद शुरू होता है – शरीर में भी और हमारे हर दिन के फैसलों में भी।